BY: MUKESH SHARMA
खैरागढ़: आचार्य श्री जी ने बताया कंस ने जब आकाशवाणी से सुना कि देवकी के गर्भ से जो आठवाँ पुत्र होगा, उसी के द्वारा तेरा वध हो जायगा, तो उसे लगा कि यदि मैं देवकी को ही मिटा दूँ, तो इस समस्या मैं सहज ही मुक्त हो जाऊँगा. वसुदेवजी ने उन्हें शान्त करने हेतु आग्रह किया – आपको भय तो मेरे आठवें पुत्र से है और आप जानते कि मैं सत्यवादी हूँ, तो मैं आपको वचन देता हूँ कि देवकी के गर्भ से जो भी पुत्र उत्पन्न होंगे, वे सब मैं आपको सौंप दूँगा. उन्होंने सचमुच सत्य की उस अर्थ में रक्षा की.
किन्तु जब कृष्ण का प्राकट्य हुआ, तब क्या वे अपने उस सत्य की रक्षा कर सके ? यदि उन्होंने कंस को वचन दिया था कि ‘ मैं सभी पुत्रों को सौंप दूँगा ‘, तो उस सत्य की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण को भी कंस के हाथों सौंप देना चाहिए था, तभी तो वे सत्यवादी माने जाते, किन्तु ऐसा तो नहीं हुआ. और उन्होंने जो भी किया, वह अपने मन से नहीं किया.
भगवान् कृष्ण साक्षात् सत्य हैं. उन्होंने स्वयं वसुदेव को आदेश दिया कि वे रात के समय उन्हें लेकर गोकुल चले जायँ और यशोदा के बगल में सुलाकर, वहाँ जिस कन्या का जन्म हुआ है, उसे ले आएँ. बड़ी अद्भुत बात ! यदि यह सत्य का त्याग है, तो इसके लिए प्रेरित स्वयं भगवान् ने किया.
यहाँ भी यही अभिप्राय है कि सत्य के दो रुप हैं – एक व्यावहारिक सत्य और दूसरा पारमार्थिक. पारमार्थिक सत्य तो केवल ईश्वर ही है. हम लोग जब सृष्टि में व्यवहार करते हैं, उसमें सत्य के लिए जो मापदण्ड है, वह व्यावहारिक दृष्टि से ठीक ही है, उसका पालन किया जाना चाहिए. परन्तु एक पारमार्थिक सत्य भी है — तीनों काल में न बदलने वाला सत्य. व्यावहारिक सत्य तो देश – काल – व्यक्ति -सापेक्ष है. देश के संदर्भ में भी – जिसे आप एक देश में सत्य मानते हैं, दूसरे देश के संदर्भ में वह सत्य नहीं है. फिर आप प्रकृति के नियमों में देखिए, जब आप घड़ी देखते हैं और जब आपसे पूछा जाता है कि इस समय कितने बजे हैं, तब आप जो समय बताते हैं, उसे आप सत्य ही कहेंगे और व्यवहार में वह सत्य भी है, पर आपको भलीभांति ज्ञात है कि उसी समय सारे विश्व के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न समय हुआ होगा. अतः व्यवहार में हम जिसे सत्य मानते हैं, वह सापेक्ष सत्य है और व्यवहार में उसका महत्व है.
परन्तु जब हम पारमार्थिक सत्य को जानना चाहते हैं, पाना चाहते हैं, तब व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्यों में से किसी एक को चुनने का प्रसंग आता है. यदि वसुदेवजी शुरु से ही पुत्रों को छिपा लेते, न देने की चेष्टा करते, तो व्यावहारिक अर्थों में वह ठीक ही था कि वे पुत्रों की ममता के कारण दिये गये वचन से मुकर गये. किन्तु एक सीमा के बाद जब परमार्थ-सत्य का बोध होने के बाद व्यावहारिक सत्य का महत्व नहीं रह गया, व्यावहारिक सत्य की अपेक्षा नहीं रह गई, इसीलिए मानो भगवान ने वसुदेव के माध्यम से यह बताने की चेष्टा की कि व्यावहारिक सत्य का उद्देश्य वस्तुतः पारमार्थिक सत्य को पाना है।