- विवेक रंजन श्रीवास्तव
समीक्षक.. संयोजक पाठक मंच , वरिष्ठ रचनाकार ,
ए २३३ , ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , म.प्र. , ४६२०२३
रचना के बिम्ब , लेखक , प्रकाशक , किताब , समीक्षक और पाठक का अटूट साहित्यिक संबंध होता है . मतलबी दुनिया की भागम भाग के बीच भी यह संबंध किंचित बेमतलब बना हुआ है , यह संतोष का विषय है . भीड़ के हर शख्स का जीवन एक उपन्यास होता है , और आदमी की जिजिविषा से परिपूर्ण दैनंदिनी घटनायें बिखरी हुई बेहिसाब कहानियां होती हैं . जब कोई कहानीकार आम आदमी के इस संघर्ष को पास से देख लेता है तो वह उसमें रचना के बिम्ब ढ़ूंढ़ निकालता है . इस तरह बुनी जाती है कहानी . वास्तविक किरदार अनभिज्ञ रह जाता है पर उसकी जिंदगी का वह हिस्सा , जिसे पढ़कर लेखक ने अपने कौशल के अनुरूप कहानी गढ़ी होती है , जब प्रकाशित होती है तो वह पाठको का मर्म स्पर्श कर उन्हें चिंतन , मनोरंजन , और आंसू देती है . पत्रिका का जीवन एक सीमित अवधि का होता है , पर किताबें दीर्घ जीवी होती हैं . इसलिये किताब की शक्ल में छपी कहानियां उस किरदार और घटना को नव जीवन देती हैं . आम आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब समझने का प्रयास मैने किया . दो सौ पन्नो में फैली हुई कुल जमा तेरह कहानियां हैं . कुछ तो ऐसी हैं जिनको स्वतंत्र उपन्यास की शक्ल में पुनर्प्रस्तुत किया जा सकता है . छल ऐसी ही कहानी है , जो पात्र शालिनी के नाम से उपन्यास के रूप में विस्तारित की जा सकती है . मजे की बात है कि पाठको को उनके आस पास कोई न कोई शालिनी जरूर दिख जायेगी . क्योंकि शालिनी को एक वृत्ति के रूप में प्रस्तुत करने में राजा सिंह ने सफलता पाई है . फेसबुक की आभासी दुनिया के इस समय में कई शालिनी हमारे इनबाक्स में घुसी चली आ रही मिलती हैं .

प्रबंधन , नियति , बिना मतलब कुछ लम्बी कहानियां है . रिश्तों की कैद , सफेद परी पठनीय हैं . दरअसल प्रत्येक कहानीकार की बुनावट का अपना तरीका होता है . राजा सिंह बड़ी बारीक घटनाओ का सविस्तार वर्णन करने की शैली अपनाते हैं , इसलिये वे लम्बी कहानियां लिखते है . उसी कथानक को छोटे में भी समेटा जा सकता है . पत्र पत्रिकाओ में मैं राजा सिंह की कहानियां पढ़ता रहा हूं . किताब में पहली बार पढ़ा जब उन्होंने समीक्षार्थ “बिना मतलब” भेजी . वे देशज मिट्टी से जुड़े रचनाकार हैं . कहानियों के साथ कविताई भी करते हैं . उनके दो कथा संग्रह अवशेष प्रणय और पचास के पार शीर्षकों से पहले आ चुके हैं . हंस , परिकथा , पुष्पगंधा , अभिनव इमरोज , साहित्य भारती , रूपाम्बरा , वाक् , कथा बिम्ब , लमही , मधुमती , बया , आजकल आदि पत्रिकाओ के अंको में उनकी ये कहानियां जो इस संग्रह में हैं पूर्व प्रकाशित हैं .
बिना मतलब एक एकाकी बुजुर्ग साहित्यकार के इर्द गिर्द बुनी कहानी है जो बिन बोले मनोविज्ञान के पाठ पढ़ाती बहुत कुछ कहती है और जिंदगी का मतलब समझाती है . “कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बार में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो” . इस परिभाषा पर “बिना मतलब” की कहानियां निखालिस खरी हैं .
मैं अकादमिक बुक्स इंडिया , दिल्ली से प्रकाशित इस किताब को थोड़ा फुरसत से पढ़ने की अनुशंसा करता हूं . मेरी मंगलकामना है कि राजा सिंह निरंतर लिखें , हिन्दी पाठको को उनकी ढ़ेरो और नई नई कहानियां पढ़ने मिलती रहें .
विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल