सुनील यादव
-विवेकानंद ने कहा है कि वीणा के तार को इतना भी ना कसो कि वह टूट जाए, और इतना भी ढीला ना छोड़ो कि वह बज भी ना पाए, वैसे ही भौतिकता का सामान्य मतलब इंद्रिय बोध से साक्षात संबंध रखने वाली वस्तु से है, अर्थात जो वास्तविकता है एवं यथार्थ है वही पाश्चात्य दर्शन है । पाश्चात्य संस्कृति को इसलिए भी वैज्ञानिक एवं वस्तु परख माना जाता है क्योंकि इसमें सूक्ष्म जांच पड़ताल कर वस्तु स्थिति का सही मूल्यांकन अपनाकर एक सामान्य सिद्धांत एवं नियम बनाया जाता है। जिससे भविष्य की बातों को जानकर जीवन को और अच्छा तथा बेहतर बनाने में मदद मिल सके । सदाचार उसकी भौतिकता की प्रधानता होती है । आध्यात्मिक प्रधान संस्कृति से तात्पर्य भौतिकता वादी दृष्टिकोण से दूर रहकर भौतिकता वादी होने का ही है । प्राचीन काल से ही भारत देश में अतिथि देवो भव ‘और’ वसुधैव कुटुंबकम’ वाली संस्कृति रही है । भारत की सांस्कृतिक धरोहर, विश्वास, भावना, आस्था, धर्म, रीति रिवाज जैसे तथ्यों से भरी पड़ी है । धर्म प्रधान संस्कृति होने के कारण ही इसे आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाला देश भी माना गया है । स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में यदि कहें तो ईश्वरत और त्याग पर्यायवाची शब्द है । संस्कृति और अभिव्यक्तियाँ है । परंपरागत दृष्टिकोण से हम अपने धार्मिक तथा अध्यात्मिक दर्शन को लेकर बहुत हद तक अपने आपको एवं देश को महिमामंडित करने में लगे रहते हैं । किंतु आज आवश्यकता इस बात की है कि हमें वैसे पाश्चात्य संस्कृति में बहुत सी पूर्ण रूप से आध्यात्मिक ना होकर अहितकर बातें भी हैं, जैसे वसुधैव वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर इस तथ्य का मूल्यांकन किया जाना चाहिए संजीव ठाकुर कुटुंबकम की भावना कमतर होते जा रही है । संयुक्त परिवार की प्रणाली का 21 सदी में पांचवी एवं छठवीं सदी की मान्यताएं विघटन होते जा रहा है ।
पारिवारिक वातावरण तथा परंपराएं जारी रख उन्हें अपना सकते हैं क्या ? पाश्चात्य आज जब दुनिया वैज्ञानिक चमत्कारों से भरी पड़ी संस्कृति की नकल कर लोग परिवार से अलग है। दुनिया विज्ञान की प्रगति से चांद तो क्या सूर्य को होकर स्वतंत्र जीवनयापन करना पसंद करते हैं, मानव का क्लोन उनमे विवाह विच्छेद और अन्य विसंगतियां जन्म बनाकर ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने का प्रयास लेने लगी हैं। धर्म तथा आध्यात्मिक के प्रति किया जा रहा है। ऐसे में धार्मिक संस्कृति तथा आमजन की सूची धीरे धीरे कम होते जा रही है । बाह्य भारतीय संस्कृति हमें अपने भारतीय होने का एहसास कराती है। जो हमें विश्व के अन्य देशों से विकास की दौड़ में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है ।
भारत में अनेक परंपराएं ऐसी हैं जो सामाजिक जीवन को अधिक
सभ्य एवं अच्छा इंसान बनाए रखने में योगदान देती है। जिनसे मनुष्यता का जीवन जीने की प्रेरणा भी मिलती है। यांत्रिक उपकरणों की तरह जिंदगी जीना भी कोई जीना है । यह भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य का घालमेल ही है जो मनुष्य के जीवन को यंत्रवत बना देता है । जो आने
वाले कल के लिए घातक भी हो सकती है। वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन की कुछ विशेषताएं भी हैं, जो हमारे विचारों को अधिक तार्किक तथा बौद्धिक बनाती है। जिससे हम अपना जीवन कार्तिक तथा बौद्धिक बना सकते हैं। जिन्हें हम अपने जीवन में क्रियान्वित कर अपने मनुष्य जाति के जीवन को अधिक सार्थक एवं सुलभ बना सकते हैं । निसंदेह हमें रूढ़ीवादी या एकदम पुरातन पंथी संस्कृति से लगाव न रखकर पाश्चात्य संस्कृति के जो फायदे हैं, उन्हें अपनाकर अपना जीवन सरल
सार्थक एवं सुगम बना सकते हैं । विवेकानंद जी ने कहा है कि वीणा के तार को इतना भी ना कसो कि वह टूट जाए, और इतना भी ढीला छोड़ो कि वह बज भी ना पाए, मूलतः हमें दोनों संस्कृतियों की समग्र अच्छाइयों को आत्मसात कर उनकी बुराइयों को त्यागना होगा तब ही जीवन सफल हो सकेगा। भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान है । जबकि पश्चिमी सभ्यता भौतिकता लिए होती है, और उसमें ऐसो आराम के सामान खरीदने के कारण लोगों के खर्चे अनाप शनाप बढ़ चुके हैं। बुजुर्गों की इज्जत तवज्जो होनी कम हो गई है । दादा और नाती के संबंधों में अब वह गर्माहट शेष नहीं रह गई
है, जैसी की एक सांस्कृतिक तथा नैतिक परिवार जनों में हुआ करती । धीरे- धीरे परिवार के सदस्य अलग होकर अकेलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं। आने वाली पीढ़ी अपनी संस्कृति एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति भूलती जा रही है। प्रेम विवाह तथा अंतर जाति विवाह पाश्चात्य सभ्यता के कारण बहुत बढ़ गए हैं। जिससे वैवाहिक संबंध टूटने के कगार पर आ जाते हैं । पर दूसरी तरफ पाश्चात्य सोच के कारण स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा भी मिला है महिलाएं जहां पहले अपने घरों में कैद थी अब उन्मुक्त होकर शिक्षित होकर समाज में सफल होकर पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर व्यवसायिक दृष्टिकोण अपनाकर बड़े बड़े पदों में कार्य
कर रही हैं। समाज में खुलापन भी आ गया है। विकास रोजगार एवं मानवीय सोच में भी काफी विस्तार आया है, जो विश्व की सभ्यताओं में आज मौजूद है, जो भारत के विकास में सहायक भी
हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि हमें आध्यात्मिक भारतीय परंपरा संस्कृति तथा पाश्चात्य दर्शन तथा पाश्चात्य संस्कृति की सकारात्मक बातें आत्मसात कर विकास की एक नई राह खोजनी होगी, एवं सदैव अच्छी बातों के लिए अपने मस्तिष्क को खुला रखना होगा और पाश्चात्य संस्कृति की विसंगतियों को दूर रख भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए ।