समाज कल्याण के लिए आचार्य श्री शंकरानन्द शर्मा जी ने सभी से कहा की “खुद को बदले समाज बदलेगा” अर्थात समाज के क्रांति के संबंध में सोचते समय व्यक्ति को बांध देने की भूल सहज ही हो सकती है और होती है। यह भूल स्वाभाविक लगती है। समाज किसी वस्तु की भांति नहीं कि उसे बाहर से एक बार में ही पूरी तरह बदला जा सके। समाज की आत्मा समाज के रहने वाले व्यक्तियों में है,व्यक्ति ही अंततः समाज का प्राण है। इस कारण समाज को जीवन-नीति में कोई भी अमूल्य परिवर्तन व्यक्ति द्वारा ही प्रारंभ हो सकता है। समाज का तात्विक परिवर्तन बाह्य क्रांति से संभव नहीं हो सकता, पर समाज के शारीरिक और आंतरिक परिवर्तन का अर्थ क्या है?
क्रांति का पहला कदम होगा आज की विचार पद्धति में आमूल परिवर्तन ‘पर-दोष दर्शन’ का नहीं ‘स्व-दोष दर्शन’ को अपनी विचार पद्धति का आधार बनाना होगा। क्या दोषों को खोजने बाहर जाने की जरूरत है? प्रत्येक व्यक्ति यदि अपने दोषों को मिटाने की महाक्रांति में संलग्न हो जाए तो जीवन में पड़ोसी के दोषों को देखने का अवकाश उसे मुश्किल से ही मिल सकता है।हमारा शत्रु बाहर नहीं है, वह तो प्रत्येक के भीतर है।हम सब समाज के बीज हैं।हम जैसे होते हैं, समाज वैसा ही होता है। समाज को बदलना है तो पहले बीज को बदलना होगा क्योंकि बीज को बदले बिना वृक्ष को बदलना कब संभव हुआ है?जो कुछ मैं दूसरों में ना पसंद करता हूं, उसे मुझे आज से छोड़ देने का प्रण लेना होगा। मैं ही पुराने का कब्र और नवीन का जन्मदाता बनूंगा यह बोध क्रांति संभव हो सके इस विचार को हर एक व्यक्ति में जागृत होना जरूरी है। समाज में अशांति कौन फैला रहा है, समाज को कौन दूषित कर रहा है? भाईचारे को कौन नष्ट कर रहा है? प्रत्येक व्यक्ति अपने को छोड़कर दूसरे की गणना करने में तुला हुआ है। हमारे समाज में कौन अशांति फैला रहा है,वो गिनती खुद से शुरू करनी होगी। मैं इस महावाक्य को ही समाज क्रांति का सिद्धांत सूत्र मानता हूं। समाज कर्मभूमि है। समाज और मैं अलग नहीं हैं दुनिया को बदलने का एक ही तरीका है कि जो बदलाव आप जगत में लाना चाहते हैं उसका प्रारंभ अपने से करें।